ग्राम्य जीवन - मैथलीशरण गुप्त | Gramy Jeevan - Maithilisharan Gupt

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अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका मन  चाहे,
थोड़े   में   निर्वाह   यहाँ    है,
ऐसी  सुविधा  और  कहाँ  है ?

यहाँ  शहर की  बात नहीं  है,
अपनी-अपनी  घात  नहीं  है,
आडम्बर का  नाम  नहीं   है,
अनाचार  का  नाम  नहीं  है।

यहाँ   गटकटे  चोर  नहीं  है,
तरह-तरह के  शोर  नहीं  है,
सीधे-साधे        भोले-भाले,
हैं  ग्रामीण  मनुष्य  निराले ।

एक-दूसरे  की    ममता  हैं,
सबमें  प्रेममयी  समता   है,
अपना या ईश्वर का बल  है,
अंत:करण अतीव सरल  है ।

छोटे-से   मिट्टी  के   घर   हैं,
लिपे-पुते हैं,  स्वच्छ-सुघर हैं
गोपद-चिह्नित आँगन-तट हैं,
रक्खे एक और  जल-घट हैं ।

खपरैलों  पर   बेंले     छाई,
फूली-फली  हरी  मन  भाईं,
अतिथि कहीं जब आ जाता है,
वह आतिथ्य यहाँ पाता    है ।

ठहराया      जाता  है    ऐसे,
कोई   संबंधी       हो    जैसे,
जगती कहीं ज्ञान की ज्योति,
शिक्षा की यदि कमी न होती

तो ये  ग्राम  स्वर्ग  बन  जाते
पूर्ण शांति रस में सन  जाते।

कवि के बारें में
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली साबित हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

2 comments:

  1. एक कविता की कुछ बीच की पंक्तियां ही याद है, यदि अनुभव से पहचान सको तो पूरी कविता पढना चाहूंगा

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  2. शिक्षा आई और गांव बर्बाद हो गए।

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