प्रकृति से सीखो - श्रीनाथ सिंह | Prakriti Se Sikho - Shrinath Singh

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प्रकृति से सीखो
प्रकृति से सीखो

फूलों से नित हँसना सीखो, भौरों से नित गाना!
तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना!

सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना!
दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना!

सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना!
लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना!

वर्षा की बूँदों से सीखो, सबसे प्रेम बढ़ाना!
मेहँदी से सीखो सब ही पर, अपना रंग चढ़ाना!

मछली से सीखो स्वदेश के लिए तड़पकर मरना!
पतझड़ के पेड़ों से सीखो, दुख में धीरज धरना!

पृथ्वी से सीखो प्राणी की सच्ची सेवा करना!
दीपक से सीखो, जितना हो सके अँधेरा हरना!

जलधारा से सीखो, आगे जीवन पथ पर बढ़ना!
और धुएँ से सीखो हरदम ऊँचे ही पर चढ़ना!

कवि के बारें में
श्रीनाथ सिंह (१९०१ - १९९६) द्विवेदी युग के हिन्दी साहित्यकार हैं। कुछ समय तक आपने "सरस्वती" का संपादन किया। आपका जन्म १९०१ ई० में इलाहाबाद जिले के मानपुर में हुआ था।उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं: उलझन (१९३४), क्षमा (१९२५), एकाकिनी या अकेली स्त्री (१९३७), प्रेम परीक्षा (१९२७), जागरण (१९३७), प्रजामण्डल (१९४१), एक और अनेक (१९५१), अपहृता (१९५२) आदि आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। इनकी कहानियों में ,जो कि पड़ोसी तथा अन्य कहानियाँ , पाथेयिका एवं नयनतारा आदि संग्रहों में संग्रहित हैं , तत्कालीन ग्रामीण जनजीवन की झलक देखी जा सकती है।

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